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Friday, May 16, 2025

देश के संसद में अब बैठेंगे 790 सांसद , 2025 के जनगणना के आधार पर यदि हुआ परिसीमन , दक्षिण के राजनीतिक दलों ने खोला मोर्चा

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उत्तर प्रदेश और बिहार में बहुत से ऐसे गांव है, जिसके निवासी पूरे पांच साल अपने सांसद को देख भी नहीं पाते हैं ।

राजेन्द्र द्विवेदी की खास रिपोर्ट

नई दिल्ली । देश में नए परिसीमन को लेकर हंगामा शुरु हो गया है, जहां एक ओर जहां उत्तर भारत के लोग नए परिसीमन को लेकर जोश में हैं तो वहीं दूसरी ओर दक्षिण भारत में इनको लेकर राजनीति गरमा गई है। इसकी वजह ये है कि नए परिसीमन में दक्षिण भारत की लोकसभा सीटें घटने जा रही हैं। ऐसे में दक्षिण के राजनीतिक दलों और नेताओं ने नए परिसीमन को लेकर मोर्चा खोल दिया है।

परिसीमन के इस खेल को लेकर अपने सूटबूट वाले प्रधानमंत्री और उनके चाणक्य (गृहमंत्री )जी फंस गए हैं। दोनों नेता कैसे नए परिसीमन को लेकर फंस गए हैं और दक्षिण में किस तरह से इसका विरोध हो रहा है । ये सब कुछ विंध्यलीडर आपको बताएगा कि साथ ही इस पर भी चर्चा करेंगें कि नए परिसीमन में कैस देश में 790 सीटें होने की बात कही जा रही है।

देश में साल 2026 में नया परिसीमन होना है। इस परिसीमन से पूरे देश में लोकसभा सीटों का बढ़ना तय है, क्योंकि पिछली बार जो परिसीमन हुआ था वो 65 करोड़ की आबादी पर हुआ था, अब देश की आबादी लगभग 147 करोड़ के आसपास पहुंच गई है, ऐसे में ये तय है कि देश में लोकसभा की सीटें बढेंगी। कई मीडिया रिपोर्ट में यह बताया जा रहा है कि नए परिसीमन से देश में लोकसभा की सीटों 790 के आसपास हो सकती हैं।

इसमें उत्तर भारत से चौका देने वाले आंकड़े सामने आएंगे, क्योंकि पिछले सालों में उत्तर भारत में आबादी का ग्राफ तेजी से बढ़ा है लेकिन दक्षिण भारत ने अपने आबादी को बहुत हद तक कंट्रोल किया है लेकिन नए परिसीमन मे इसका नुकसान दक्षिण भारत को होगा। आपको बता दें कि अब तक देश में चार बार परिसीमन हुआ है। पिछला परिसीमन साल 2002 में हुआ था लेकिन ये परिसीमन नई जनगणना के आधार पर नहीं बल्कि साल 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया था। इसकी वजह ये थी कि 1976 में संविधान में संशोधन करके 2001 तक जनसंख्या के आधार पर सीटों के निर्धारण पर रोक लगा दी गई थी।

इसका मकसद ये था कि जनसंख्या नीति को सफलतापूर्वक लागू करने वाले राज्यों को नुकसान न उठाना पड़े। ऐसे में 2002 के परिसीमन में सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं किया गया, बल्कि केवल सीमाओं का पुनर्निर्धारण किया गया और सीटें जस की तस यानि कि 543 की रह गईं लेकिन क्योंकि अब 1971 और आज की आबादी का ग्राफ दो गुने से भी ज्यादा का हो गया है, इसलिए अब सीटों को बढ़ाना जरुर ही नहीं बड़ी आवश्यकता भी है। क्योंकि ज्यादातर लोकसभाओं में आबादी का ग्राफ तीस लाख के उपर चला गया है और उनको प्रतिनिधित्व एक सांसद कर रहा है जबकि इस एक सांसद को सिर्फ 10 लाख की आबादी का प्रतिनिधित्व करना चाहिए लेकिन ये सांसद अपनी से तीन गुना की आबादी का भार ढो रहे हैं, जिससे जनसमस्याओं को सुनने और सुलझाने में बहुत दिक्कतें आ रही हैं।

आपको बता दें कि अब 2026 में भारत में परिसीमन प्रस्तावित है, लेकिन इससे पहले सरकार को जनगणना करानी पड़ेगी। यूं तो देश में जनगणना 2021 में ही होनी थी लेकिन कोरोना की वजह से ये काम नहीं किया जा सका। माना जा रहा है कि इस साल जनगणना कराई जाएगी। अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस की एक स्टडी के अनुसार 2025 तक यूपी-उत्तराखंड की आबादी 25 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है, अगर 20 लाख की आबादी पर एक लोकसभा सीट को आधार बनाया गया तो यूपी-उत्तराखंड के हिस्से में 126 लोकसभा सीटें आएंगी, बिहार-झारखंड के हिस्से में 85 सीटें आएंगी, जबकि तमिलनाडु की सीटें 39 ही रहेंगी और केरल की सीटें 20 से घटकर 18 हो जाएंगी।

अगर 1976 की तरह 10 या 11 लाख की आबादी पर एक सांसद का प्रतिनिधित्व स्वीकार किया गया गया तो यूपी-उत्तराखंड, बिहार- झारखंड की लोकसभा सीटों में बंपर इजाफा होगा। ऐसी स्थिति में यूपी-उत्तराखंड की लोकसभा सीटें 250, बिहार-झारखंड की 169, राजस्थान की 82, तमिलनाडु की 76 और केरल की 36 सीटें हो जाएगी। ऐसे में साफ है कि दक्षिण को बड़ा नुकसान होगा, एक ओर जहां यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड में बड़े पैमाने पर सीटें बढेंगी तो वहीं दूसरी ओर तमिलनाडू़, केरल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में सीटें घट सकती हैं, क्योंकि इन राज्यों ने अपनी आबादी को कंट्रेाल किया है लेकिन इसका खमियाजा उनको उठाना पड़ेगा, क्योंकि परिसीमन तो आबादी के आधार पर ही होगा। यही वजह की साउथ इंडिया की लोकसभा सीटें का घटना तय है।

इन्हीं सीटों को के घटने को लेकर दक्षिण भारत की तमाम राजनीतिक दल और बीजेपी आमने सामने आ गए है। यह सच है कि अगर साउथ की सीटें कम हो जाएंगी तो उनका राष्ट्रीय राजनीति में असर कम हो जाएगा, बजट से लेकर हर एक चीज में कटौती होगी। ऐस में साउथ ही सीटों को लेकर सियासत गरमाई हुई है। आपको बता दें कि पिछले दिनों तमिलनाडू के सीएम एमके स्टालिन ने इस मुद्दे को उठाया था और इसके लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई है। इसके बाद इस मामले में आंध्र, तेलंगाना, केरल और कर्नाटक में इस बात को लेकर हंगामा मच गया है। वैसे तो अमित शाह ने स्टालिन के बयान के बाद इस पूरे मामले पर पर बयान दिया था। गृहमंत्री का दावा है कि एक भी सीट साउथ में घटने नहीं देंगे, लेकिन ये असमंजस बरकरार है कि ये कैसे संभव होगा ।

अगर साल 2025 की जनगणना पर नया परिसीमन होगा तो ये तय है कि हर हाल में दक्षिण भारत के पांच राज्यों में सीटों का संख्या या तो स्थिर रहेंगी या फिर घट जाएंगी। और वहीं दूसरी ओर उत्तर भारत के अकेले पांच राज्यों मंे आधे से ज्यादा सीटें चली जाएंगी। ऐसे में अमित शाह के बयान के बाद कर्नाटक के सीएम एम सिद्धारमैया का बयान आया है। उन्होंने अमित शाह के बयान के बाद गारंटी मांगी है कि वो बताएं कि कैसे साउथ की सीटों को नहीं घटने देंगे। उन्होंने इसके लिए एक प्लान भी दिया है। सिद्धारमैया ने कहा है कि यदि 2025 की जनगणना के अनुसार ही परिसीमन हुआ तो फिर दक्षिण भारत के 5 राज्यों की सीटें कम हो जाएंगी। पहले भी जनसंख्या के अनुसार ही परिसीमन होता रहा है और यदि इस बार भी वही फॉर्मूला रहा तो हमें नुकसान होगा। उन्होंने होम मिनिस्टर अमित शाह से एक गारंटी मांगी कि 1971 की जनगणना के आधार पर ही परिसीमन किया जाए।

यह तथ्य है कि यदि वर्तमान जनसंख्या के अनुसार परिसीमन किया गया तो फिर दक्षिण भारत के राज्यों को नुकसान होगा। इस अन्याय को रोकने के लिए परिसीमन 1971 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ही होना चाहिए। यदि होम मिनिस्टर अमित शाह कहें कि 1971 के आंकड़ों का ही प्रयोग किया जाएगा तो माना जा सकता है कि दक्षिण भारत के राज्यों को नुकसान नहीं होगा।

आपको यहां बता दें कि अमित शाह ने भले से ही ऐलान कर दिया है कि साउथ की सीट नहीं घटने देंगे लेकिन ये तो सिर्फ सिद्धारमैया वाले फार्मूले से ही संभव है, क्योंकि सिर्फ एक और एक चारा है कि परिसीमन 1971 वाली जनगणना से हो जाए, जैसा कि 2002 में हुआ था लेकिन इससे हिंदी भाषी प्रदेशों में बड़ी समस्या है। एक सांसद का क्षेत्र और आबादी इतनी बड़ी हो गई है कि उसको एक सांसद को अकेले संभालना बड़ी चुनौती है। जनता अपने सांसद को चुन जरुर रही है लेकिन बढ़ती आबादी के चलते उसकी पहुंच सांसद से काफी दूर हो गई। उत्तर प्रदेश और बिहार में बहुत से गांव ऐसे है, जो पूरे पांच साल अपने सांसद को देख भी नहीं पाते हैं, इसकी वजह सिर्फ यही नहीं कि सांसद काम नहीं करते बल्कि बहुत हद तक ये भी है सांसद का क्षेत्रफल इतना है कि वो अपनी जनता को चाहकर भी पूरा समय नहीं दे पा रहा है।

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