आचार्य विनोबा भावे अपने ‘पवनार आश्रम’ से 325 किलोमीटर दूर तेलंगाना क्षेत्र के ‘पोच्चंपल्लि गाँव की यात्रा 18 अप्रैल, 1951ई. को भूदान के निमित्त पूर्ण की और उस ग्राम के जमींदार रामचन्द्र रेड्डी ने सर्वप्रथम 100 एकड भूमि आचार्य विनोबा भावे को दान में दी थी, जिसे उन्होंने उसी गाँव के भूमिहीन किसानों को दे दिया, यहीं से विनोबा के राष्ट्रव्यापी भूदान यज्ञ का सूत्रपात हुआ।
सन्त विनोबा भावे पदयात्राएँ करते और गाँव गाँव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी ज़मीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बाँटने के लिए देने का अनुरोध किया करते थे। उन्होंने पाँच करोड एकड जमीन दान में प्राप्त करने का लक्ष्य रखा था, जो भारत में तीस करोड एकड जोतने लायक ज़मीन का छठा हिस्सा था। आन्दोलन के प्रारम्भ में आचार्य विनोबा भावे ने करीब 200 गाँवों की यात्रा की थी और उन्हें 12,200 एकड भूमि मिली। इसके बाद भूदान-आन्दोलन उत्तर भारत ‘ की तरफ अग्रसर हआ। माण्डा के राजा बहादुर राजर्षि विश्वनाथप्रताप सिंह एवं अगोरी-बडहर के राजा बहादुर आनन्दब्रह्म शाह ने आचार्य विनोबा भावे के इस अनुष्ठान में मुक्तहस्त से सहयोग किया।

देवगढ ताल्लुक़ा के ज़मींदार राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह सन् 1955 ई. में आचार्य विनोबा भावे के सम्पर्क में आये। आचार्य विनोबा भावे की ओजस्वी वाणी का प्रभाव राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह को सर्वोदयी विचारधारा का प्रबल समर्थक बना दिया। “जय जगत् एवं ‘सबै भूमि गोपाल की’ जैसे प्रेरक वाक्य जीवन के सूत्र बन गये। उन्होंने 56 एकड़ ज़मीन आचार्य विनोबा भावे को प्रदान किया। इक्कीस वर्ष की अल्पवय में लिए गए इस निर्णय ने राजर्षि बाब् रामप्रसाद सिंह के जीवन- दर्शन को परिवर्तित कर दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, सन्त विनोबा भावे और बाबा आमटे का प्रभाव बाबू रामप्रसाद सिंह को एक नयी चेतना से अनुप्राणित करता है। उन्होंने आजीवन गरीबों एवं निर्बलों की सेवा का व्रत स्वीकार किया। भूदान-आन्दोलन की पाँचवी वर्षगाँठ के अवसर पर आचार्य विनोबा भावे ने राजर्षि बाबृ रामप्रसाद सिंह के नाम जो पत्र लिखा था, उससे उनके प्रति विनोबाजी के वात्सल्य भाव का बोध होता है।

विनोबा जी की अनुशंसा पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री सम्पूर्णानन्द ने राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह को ‘भूमि प्रबन्धन समिति’ का मानद अध्यक्ष नियुक्त किया था। सन् 1957 से सन् 1962 तक के अपने कार्यकाल में महात्मा गाँधी. सन्त विनोबा एवं बाबा आमटे के आदर्शों को क्रियान्वित करते हए राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह ने देवगढ ताल्लुका के समस्त भूमिहीनों को पर्याप्त भूमि का पट्टा किया। ‘भूमि प्रबन्धन समिति’ के चेयरमैन का आनरेरी पद उस समय अत्यन्त महत्त्वपर्ण था। चेयरमैन के अधिकार वर्तमान समय के एस.डी.एम. के अधिकार के बराबर थे। बाबू रामप्रसाद सिंह ने अपने अधिकार का प्रयोग अन्त्योदय के लिए किया। गरीब, पीड़ित, शोषित, पददलित के अधिकार के लिए बराबर संघर्ष किया। अपने सामाजिक दायित्व एवं गार्हस्थ जीवन का उत्तरदायित्व निभाते हए राजर्षिं बाबू रामप्रसाद सिंह जब तक स्वास्थ्य ठीक था, तब तक नियमित रूप से सूत कातते थे। अपने काते हुए सूत वे अपने पुरोहित पण्डित ओंकारदेव पाण्डेय को दिया करते थे, जिसका उपयोग यज्ञोपवीत ( जनेऊ) के निर्माण में होता था। राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह सूत कातने को उपासना समझते थे। अपने मिलने-जुलने वालों से वे कहा करते थे- सबको एक जगह आकर राष्ट्र के लिए उपासना करनी चाहिए। गाँधीजी ने ऐसी उपासना बतायी- सूत कातने की। हम सब एक हैं, इसके प्रतीक के तौर पर रोज़ सूत कातने का नियम करना चाहिए। गाँधीजी का कहना था कि हर एक व्यक्ति को चाहिए कि वह ईश्वर की भक्ति के लिए प्रेम की शक्ति के निर्माण के लिए रोज़ सूत कातने का संकल्प करे।’ इसी क्रम में राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह सन्त विनोबा की मराठी कविता की यह पंक्तियाँ सुनाते थे-
कल्याणकारी शक्तिशाली सर्वलभ्य उपासना।
चित्ति मुरो विश्वान्त पसरो हीच माझी वासना।

मेरी यही वासना है कि कल्याणकारी, शक्तिशाली एवं सर्वसलभ उपासना मेरे चित्त में स्थिर हो जाय और विश्व में फैले। अपने काते गये सूत से बननेवाले यज्ञोपवीत के महत्त्व को समझाते हुए राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह कहते थे- ‘लन्दन के क्वीन एलिजाबेथ चिल्ड्रेन हॉस्पिटल के भारतीय मूल के डॉ एस.आर. सक्सेना के अनुसार हिन्दुओं द्वारा मलमूत्र त्याग के समय कान पर जनेऊ लपेटने का वैज्ञानिक आधार है। ऐसा करने से आँतों की आकर्षण गति बढती है, जिसे कब्ज़ दूर होती है तथा मूत्राशय की मांसपेशियों का संकोच वेग के साथ होता है। कान के पास की नसें दाबने से बढे हए रक्तचाप को नियन्त्रित तथा कष्ट से होने वाली श्वासक्रिया को सामान्य किया जा सकता है। इसी क्रम में वे स्मरणशक्ति और नेत्र-ज्योति बढानेवाले ‘कर्णपीडासन’ का उल्लेख करते हए कहते थे- ‘कान पर कस कर जनेऊ लपेटने से कर्णपीडासन के सभी लाभों की प्राप्ति होती है।” यज्ञोपवीत-माहात्म्य के सन्दर्भ में राजर्षि बाबू रामप्रसाव सिंह इटली के बारी विश्वविद्यालय के न्यरोसर्जन प्रो. एनारिका पिरांजेली का उल्लेख करना नहीं भूलते थे। वे बताते थे कि पिरांजेली ने यह सिद्ध किया हैकि कान के मूल में चारों तरफ दबाव डालने से हृदय मजबृत होता है। पिरांजेली ने हिन्दुओं द्वारा कान पर लपेटी गयी जनेऊ को हृदय-रोगों से बचानेवाली ढाल की संज्ञा दी है।’ अपने काते सूत से निर्मित जनेऊ का महत्त्व जन जन को समझा कर राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह, गांधी और विनोबा की सर्वलभ्य उपासना का प्रचार-प्रसार करते रहे।

सन् 1972 से सन् 1990 तक देवगढ के निर्विरोध प्रधान रहे राजर्षि वाबू रामप्रसाद सिंह बात बात में बाबा आमटे के सूत्र वाक्य- ‘हाथ लगे निर्माण में, नहीं माँगने, मारने में का उल्लेख करते थे। 94 वर्ष के होकर ब्रह्मलोक गमन करने वाले अन्त्योदय के साधक राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह आज मौन हो गए हैं। आत्मश्लाघा से सदैव दृर रहकर कार्य करने की संस्कति ही उनकी जीवनी शक्ति रही है। सन्त विनोबा की चेतना उनके रग रग में बसी रही। भूदानयज्ञ के माध्यम से विनोवाजी ने जिस समर्थ भारत की परिकल्पना की थी, उसमें राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह जैसे कर्मशील अन्यायियों का बहत बडा योगदान था। आचार्य विनोबा भावे को उत्तर प्रदेश में 4,36,362 एकड जमीन दान में प्राप्त हुई, जिसमें 56 एकड़ का योग प्रदान करने का गौरव राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह के कारण देवगढ को भी प्राप्त है। देवगढ को विनोबाजी से जोडनेवाले राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह का सेवापरायण जीवन महाराज रन्तिदेव के निम्नांकित कथन को अक्षर अक्षर चरितार्थ करता है-
न कामयेsहं गतिमीश्चरात्परम् अष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा। आर्ति प्रपद्येsखिल देह भाजाम्
अन्तःस्थितो येन भवन्त्युदःखा।।’
निश्चय ही राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह अपने वंश-परिवार की मर्यादा को बढानेवाले, गाँधी, विनोबा और आमटे के सच्चे अनुयायी और समाज के दिग्बोधक मौन साधक हैं। काव्याचार्य पण्डा दुर्गादत्त उपाध्याय ‘दत्त’ ने उनके इन्हीं गुणों की प्ररोचना करते हए ठीक ही लिखा है-
ब्रह्मात्रिचन्द्रगण्डानां भूपतीनां कुले क्रमात्।
देवगढ़ेsभवच्छ्रीमान् रामसिंहो नरोत्तमः।।



