इतिहास की पांडुलिपियों में सोनभद्र की ऐतिहासिकता व रहस्यमयी कहानियों के साथ साथ आजादी के दीवानों की वीरता की कहानियां भरी पड़ी है।सोनभद्र की रहस्यमयी कहानी से तो पूरा विश्व चंद्रकांता सीरियल के बहाने परिचित हो चुका है तथा इस सीरियल के बहाने ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने वाला तिलस्म से भरपूर विजयगढ़ दुर्ग से भी लोग परिचित हो चुके हैं परन्तु विजयगढ़ किले की ऐतिहासिकता से लोग भिज्ञ नहीं है।
इतिहासकार बताते हैं कि आधुनिक युग में भी अपने रहस्यों से लोगों को हैरत में डालने वाले विजयगढ़ किले पर अंग्रेजी हुकूमत ने वर्ष 1781 में बनारस के राजा चेत सिंह को हराकर कब्जा जमाया था।गजेटियर के साथ साथ तत्कालीन रचनाओं व आजादी के बाद की कई रचनाओं में आजादी के दीवानों की वीरता परक इस लड़ाई का उल्लेख मिलता है। मिर्जापुर गजेटियर, पं. देव कुमार मिश्रा द्वारा रचित सोन के पानी के रंग, पं. अजय शेखर द्वारा संपादित सोन वैभव पत्रिका, जितेंद्र सिंह संजय द्वारा रचित सोनभद्र का इतिहास, कथाकार रामनाथ शिवेंद्र की रचना आदि में इस बात का उल्लेख मिलता है कि अट्ठारह सौ सत्तावन में हुई अगस्त क्रांति के समय विजयगढ़ दुर्ग स्वतंत्रता की मिसाल बन कर सामने उभरा। डॉ. जितेंद्र सिंह संजय सहित अन्य इतिहासकारों के मुताबिक 1741 के पूर्व तक विजयगढ़ दुर्ग पर चंदेल वंश के राजाओं का शासन रहा। 1741 में तत्कालीन काशी नरेश बलवंत सिंह ने इसे जीतकर अपने अधीन कर लिया। उनके बाद उनके पुत्र चेत सिंह का यहां आधिपत्य कायम हुआ। 1781 में वारेन हेस्टिंग्स की अगुवाई वाली सेना से चेत सिंह को हार मिलने के बाद विजयगढ़ दुर्ग का स्वामित्व अंग्रेजी हुकूमत के पास चला गया। लेकिन अगस्त 1857 की क्रांति में जिले में स्वतंत्रता समर के प्रथम योद्धा तथा विजयगढ़ राजपरिवार के वंशज लक्ष्मण सिंह की अगुवाई में चंदेलों और धांगरों की टोली ने अंग्रेजों से विजयगढ़ दुर्ग को मुक्त कराकर न सिर्फ़ आजादी की अलख जगाई बल्कि एक छोटे से राज्य को गोरी हुकूमत के समय लगभग 5 महीनों तक पूरी तरह स्वतंत्र रखकर पूरे देश में आजादी के लिए तड़प भी बढ़ा दी थी। इस स्वातंत्र्य संग्राम ने अंग्रेजी हुकूमत की ऐसी चूलें हिलाईं कि आजादी की चाह स्वतंत्रता मिलने के बाद ही शांत हुई।
इतिहासकारों के अनुसार आजादी के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बिहार की आरा रियासत के राजा बाबू कुंवर सिंह की अगुवाई में दानापुर की फौज 24 अगस्त, 1857 को कर्मनाशा नदी पार कर पन्नूगंज पहुंची। यहां उन्होंने रामगढ़ में कैंप डाल कर इस क्षेत्र के चंदेलों में आजादी की अलख जगाई। इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत के आधार स्तम्भ जैसे थाना, तहसील आदि में लूटपाट करते हुए सरकारी भवनों को आग लगाते हुए आरा बटालियन 29 अगस्त, 1857 को रींवा रियासत की तरफ निकल गई।परन्तु इसके बाद भी इस क्षेत्र में स्वतंत्रता की आग ठंडी नहीं हो पाई।आरा रियासत की फौज के साथ आए वर्ष 1741 के पूर्व के विजयगढ़ राज परिवार के वंशज लक्ष्मण सिंह, पन्नूगंज के जमींदार ठाकुर ईश्वरी सिंह की अगुवाई में महज चंदेलों और धांगरों की टोली बनाकर विजयगढ़ दुर्ग पर हमला बोल दिया। सटीक रण कौशल और आदिवासियों के पारंपरिक हथियार तीर धनुष के सटीक वार ने इस कदर कहर बरपाया कि अंग्रेज दुर्ग छोड़कर भाग खड़े हुए। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाली इस टोली में जनपद के जूना महतो और बुधा भगत ने अग्रिम मोर्चे पर लड़ाई लड़कर जीत में अहम भूमिका निभाई। विजयगढ़ रियासत के तत्कालीन वारिस लक्ष्मण सिंह की अगुवाई वाली आजदी के दीवानों की फौज ने ऐसी घनघोर लड़ाई लड़ी की विजयगढ़ के तत्कालीन अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर डब्ल्यू राबर्ट्सन के बारे में कहा जाता है कि वह इसके बाद ऐसे गायब हुए जैसे वह कभी यहां रहे ही नहीं। विजय हासिल होने के बाद विजयगढ़ दुर्ग के साथ ही विजयगढ़ की पूरी रियासत में लगभग पांच माह तक स्वतंत्रता की पताका फहराती रही। अंग्रेजी हुकूमत के नियमों को दरकिनार कर नए नियम लागू किए गए। बतौर राजा लक्ष्मण सिंह ने इस अवधि में अपने राज्य में राजस्व भी वसूला।
एक छोटे से राज्य से सीधी टक्कर मिलती देख अंग्रेजी सरकार ने मीरजापुर की प्रशासनिक फौज के साथ ही कानपुर की फौज बुलाई और सैनी जार्ज टकर को कमान सौंपते हुए किला फतह करने के लिए भेजा। लक्ष्मण सिंह और उनके साथियों के रणकौशल को देखते हुए सीधे विजयगढ़ के लिए कूच न कर तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत की फौज वाया रोहतास (बिहार) जंगल-जंगल होते हुए दुर्ग के करीब पहुंची तथा जंगल की ही आड़ लेकर किले के चारों तरफ घेरेबंदी की गयी। इसके बाद नौ जनवरी, 1958 को विजयगढ़ दुर्ग पर अटैक किया। लक्ष्मण सिंह उनके साथी और उनकी सेना ने कुछ दिनों तक तो अंग्रेजों और उनकी फौज से लोहा लिया ।लेकिन गोरों के अत्याधुनिक हथियार के आगे उनकी मार फीकी पड़ने लगी,कई सैनिक और साथी शहीद हो गए। यह देख लक्ष्मण सिंह गोरों को चकमा देते हुए जंगल के रास्ते रीवा रियासत की तरफ निकल गए तथा वहां के राजा की सहायता से उन्होंने दोबारा विजयगढ़ दुर्ग को पाने की कोशिश की। लेकिन इस बार उन्हें अंग्रेजी सेना ने बंदी बना लिया और जेल में उनकी मृत्यु हो गई। तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर सीडब्ल्यू डेंसन की वर्ष 1858 की रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र आता है कि विजयगढ़ रियासत में लगभग चार से पांच माह तक अंग्रेजी सरकार के कानून की अवज्ञा की स्थिति बनी रही।
1857-58 के अंग्रेजी गजेटियर के रिवेन्यू रिपोर्ट में भी यह जिक्र मिलता है कि तत्कालीन समय में अंग्रेजी सरकार का यह मानना था कि अगस्त क्रांति का उद्देश्य रेवेन्यू को रोककर सरकार की लाइफ लाइन को जाम करना था। उस समय आरा रियासत के कुंवर सिंह की अगुवाई वाली बटालियन द्वारा राबर्ट्सगंज तहसील की ट्रेजरी से 4635 रुपए भी लूट लिए गए थे जिसे उस समय की गोरी हुकूमत के लिए बड़ी चुनौती माना गया था। यही वजह है कि गुलामी के प्रतीक मौजूदा राबर्ट्सगंज शहर (जिला मुख्यालय), जिसका नाम तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर डब्ल्यू राबर्ट्सन के नाम पर पड़ा है, को बदलकर सोनभद्र नगर या लक्ष्मण नगर करने की मांग लंबे समय से हो रही है, लेकिन अभी तक इस मामले में पहल सामने नहीं आ सकी है । हाँ इतना अवश्य हुआ कि रेलवे स्टेशन का नाम राबर्ट्सगंज से बदलकर सोनभद्र किया जा चुका है। फिलहाल अगस्त क्रांति के जरिए आजादी की मशाल जलाने वाले अमर शहीदों को अपेक्षित सम्मान न मिल पाने से काफी लोगों को इसका मलाल अवश्य ही है।