Thursday, April 18, 2024
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ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण के आदेश को अदालत में चुनौती

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वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर से लगी ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण के स्थानीय अदालत के आदेश के ख़िलाफ़ सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने वाराणसी की ज़िला अदालत में पुनरीक्षण याचिका दायर की है.

वाराणसी । अदालत नौ जुलाई को इस बारे में फ़ैसला करेगी कि याचिका को स्वीकार किया जाए या नहीं.

यूपी सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड की ओर से वकील अभय यादव और तौहीद ख़ान ने सिविल जज सीनियर डिवीजन के इसी साल आठ अप्रैल के उस आदेश को पुनरीक्षण याचिका के ज़रिए चुनौती दी है, जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को पांच सदस्यीय कमेटी की देखरेख में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की खुदाई का आदेश दिया गया था.

अदालत ने आदेश दिया था कि एएसआई खुदाई करके यह पता लगाए कि ज्ञानवापी परिसर में मंदिर था या मस्जिद थी और देश की आज़ादी के वक़्त परिसर का धार्मिक स्वरूप कैसा था. लेकिन मस्जिद प्रबंधन कमेटी और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने अदालत के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने की बात कही थी.

इसी साल आठ अप्रैल को, वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिवीजन) आशुतोष तिवारी ने ज्ञानवापी परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण का आदेश दिया था. यह निर्णय उन याचिकाओं के एक समूह पर आया था, जिसमें दावा किया गया था कि 17 वीं शताब्दी में ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण के लिए मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हिस्से को ध्वस्त कर दिया था. इन याचिकाओं में मांग की गई है कि जिस ज़मीन पर मस्जिद बनी है उसे हिंदू पक्ष को सौंप दिया जाए.

काशी विश्वनाथ मंदिर मामले में दावे का समर्थन करने वाले विजय शंकर रस्तोगी कहते हैं कि औरंगज़ेब ने अपने शासन के दौरान काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का फ़रमान तो जारी किया था लेकिन उन्होंने मस्जिद बनाने का फ़रमान नहीं दिया था. रस्तोगी के मुताबिक़, मस्जिद बाद में मंदिर के ध्वंसावशेषों पर ही बनाई गई है.

ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं, “मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा नहीं है. यह मंदिर से बिल्कुल अलग है. ये जो बात कही जा रही है कि यहां कुआँ है और उसमें शिवलिंग है, तो यह बात बिल्कुल ग़लत है. साल 2010 में हमने कुएँ की सफ़ाई कराई थी, वहां कुछ भी नहीं था.”

सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं, “मस्जिद में उससे पहले की कोई चीज़ नहीं है जिससे स्पष्ट हो सके कि यह कब बनी है. राजस्व दस्तावेज़ ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है. इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर अगले साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और इसे मस्जिद के तौर पर अदालत ने स्वीकार किया था.”

“अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है. बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया. इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है तब से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है. कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है.”

साल 1991 में ज्ञानवापी के सर्वेक्षण के लिए अदालत में याचिका दायर करने वाले हरिहर पांडेय बताते हैं, “साल 1991 में हम तीन लोगों ने ये मुक़दमा दाख़िल किया था. मेरे अलावा सोमनाथ व्यास और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे रामरंग शर्मा थे. ये दोनों लोग अब जीवित नहीं हैं.”

इस मुक़दमे के दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति क़ायम रखने का आदेश दिया था लेकिन स्टे ऑर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू हुई और इसी सुनवाई के बाद मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंज़ूरी दी गई थी.

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